Pardes me...
खींचती थी डोर कोई अनदेखी अनजानी सी
खींचती थी डोर कोई अनदेखी अनजानी सी
एक तड़प परदेस में थी जानी सी पहचानी सी
भीड़ में अकेला था ,लम्बी तन्हाई थी
दुनिया की नज़रों में सारी खुशियाँ पाई थी
लौट कर परदेस से मुझको ज़मी अपनी लगी
पेड़ - पॊधे क्या , हवा क्या , गर्द भी अपनी लगी
इनसे भी कुछ रिश्ता है ,मुझको पता न था
पहले मै ऐसी बातों को मानता न था
पंकज जैन "सुकून"
"दिल तो दिल है "पुस्तक से साभार
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